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हमें मिल्लत की बागडोर संभालनी ही होगी
डा. सैयद ज़फ़र महमूद


आसाम के कोकराझार में पिछले दिनों 34 मुसलमान फिर मार दिए गए और अनगिनत मुसलमानों ने आतंकित हो कर अपने घर छोड़ दिए। कितने ही घर जला दिए गए। हम मुसलमानों के लिए यह आत्मचिंतन की घड़ी है। हम अपनी मिल्लत के लोगों को कब तक यूं ही मौत के घाट उतरते देखते रहेंगे। शायर के शब्दों में अब भीगी पलकों और सिस्कियों से काम नहीं बनेगा, बल्कि अब हमें आन्तरिक कारवाई के कुरुक्षेत्र में उतरना हो गा ।

मुज़फ़्फ़रनगर और शामली के ग़म से अभी हम निकल भी नहीं पाए थे कि कोकराझार का घाव हमारे सीने पर आ लगा। मिल्लत की ढेर सी धनसम्पत्ति जो हमें मिल्लत की तरक़्क़ी के लिए लगानी थी वह मुज़फ़्फ़रनगर और शामली के हज़ारों मासूम मुसलमानों को फिर से उनका घर बार बसाने में हमें लगानी पड़ी। अब इसी तरह अपने क़ीमती माल को फिर से बिला इरादा खपाने पर हमें मजबूर करने के लिए आसाम में आपातकाल स्थिति पैदा कर दी गयी। अगर ग़ौर करें तो यह बात साफ़ समझ में आती है कि मुसलमानों को इस बदहाली में उलझाए रखने की कोई सोची समझी योजना है जिसके तहत यह सब कुछ चलता रहता है। लेकिन हमारा हाल यह है कि हम सिर्फ़ अपनी निजी तरक़्क़ी और अपने बाल बच्चों के लास विलास के लिए माल जमा करने की धुन में ही लगे रहते हैं, मिल्लत के सामूहिक हित के लिए कुछ सोचने व करने की हमें फ़िक्र ही नहीं है। हम यह भूले हुए हैं कि एक आदमी का वजूद उसकी मिल्लत के साथ ही होता है, अकेले वजूद का कोई महत्व नहीं है। अल्लामा इक़बाल के अलफ़ाज़ मेः फ़र्द क़ायम रब्त-ए-मिल्लत से है तनहा कुछ नहीं, मौज है दरिया में और बेरून-ए-दरिया कुछ नहीं।
हालात का तक़ाज़ा है कि हम मिल्लत की बेहतरी के लिए दीर्ध कालिक योजना (Long Term Planning) बनाएं। इसके लिए हमें पहले अपने अन्दर झांकना होगा। हम अपने वजूद की अहमियत को पहचानें। कुछ देर के लिए हम ख़ुद को कल्पना करके सितारों की ऊंचाइयों तक ले जाएं और वहां से यह देखें कि हम सदियों पहले हिन्दुस्तान की इस ज़मीन पर उतारे गए थे और उसके बाद से यहां की मिट्टी मे रच बस गए। हमारे जैसे दर्जनों मुल्कों में मुसलमानों को आबाद करने की यह योजना अल्लाह की बनाई हुई है। आने वाली पीढ़ियों की शान्तिपूर्ण आमद और फिर दुनिया में रहने व बसने के लिए अनुकूल हालात बनाना हमारी इस्लामी ज़िम्मेदारी है। लेकिन हम हिन्दुस्तानी मुसलमान अपनी इस दीनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने में काफ़ी पीछे हैं। बल्कि यह कहना ग़लत न होगा कि हम अपने निकम्मेपन की वजह से आने वाली पीढ़ियों के रास्ते में कांटे बिछा रहे हैं, जिसके लिए आख़िरत में कोई जवाब हमारे पास न होगा। अब भी वक़्त है कि हम जाग जाएं। हमें सिर्फ़ इतना करना है कि अल्लाह के सिवा हर एक का डर अपने अन्दर से निकाल दें। और अल्लाह ने हमें जो व्यक्तिगत क्षमताएं दी हैं उनका कम से कम एक तिहाई इस्तेमाल हम मिल्लत के लिए करें।

हमें अपने समाज को संगठित करना होगा। क़ुर्आन पाक में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है कि शब-ए-क़दर (लैलतुल क़द्र) हज़ार महीनों से बेहतर है। ग़ौर करें कि अल्लाह ने हज़ार महीनों का ज़िक्र क्यों किया। दर असल शुरू से आख़िर तक दुनिया में आने वाले इंसानों की औसत उम्र 83 साल से कुछ अधिक यानि एक हज़ार महीने के बराबर निकलती है। हिसाब की आसानी के लिए, हम आज के इंसान की औसत उम्र 84 साल मान लेते हैं। इस उम्र के तीन हिस्से करने पर एक तिहाई उम्र 28 साल बनती है। पहले 28 साल में स्वयं की परवरिश, तालीम, रोज़गार और शादी के मरहले पूरे होते हैं, दूसरे 28 साल बच्चों की परवरिश, तालीम और उनकी घर आबादी में निकल जाते हैं। उम्र का तीसरा हिस्सा मिल्लत के लिए है। इस ज़माने में भी इन्सान के अन्दर चलने फिरने और सक्रिय रहने की ताक़त होती है। यह ताक़त और दौड़-धूप मिल्लत को फ़ायदा पहुंचाने के लिए लगाई जानी चाहिए। आदमी अगर चाहे तो यह हिस्सा भी महज़ अपने और अपने बच्चों के लिए फ़ायदा समेटने में ही गुज़ार दे। मगर यह बहुत बड़ी खुदग़र्ज़ी है, इसके लिए तो अल्लाह ने हमें अशरफ़ुल मख़लूक़ात नहीं बनाया है। जब आसमानों और पहाड़ों ने अपनी अयोग्यता की वजह से इस ज़िम्मेदारी को उठाने में अक्षम होना मान लिया था तो यह ज़िम्मेदारी अल्लाह ने इंसान पर डाली थी, अब इसकी लाज तो हम इंसानों को रखनी ही होगी।

इस परिपक्ष में ग़ौर करें कि मुज़फ़्फ़रनगर, कोकराझार और गुजरात जैसे भयानक मन्ज़र आगे हमारे सामने न आएं, इसके लिए हम ख़ुद क्या कर रहे हैं। क्या हम अपना कोई फ़र्ज़ निभा रहे हैं, नहीं ना ? तो आइए, अब अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हैं।

अगर हम अपनी आबादी के हिसाब से लोकसभा की (25-30 के बजाए) 70-75 सीटों पर बैठे हों, अगर देश के हर आठवें ज़िले में हम कलक्टर और एस.पी हों तब भी क्या असमाजिक तत्व हमारी तरफ़ ग़लत नज़र से देख सकते हैं ? हरगिज़ नहीं। यक़ीन कीजिए कि हमारे ये जायज़ संवैधानिक अधिकार हमें इस लिए नहीं मिल रहे हैं कि हम व्यक्तिगत ख़ुदग़र्ज़ी में पड़े हुए हैं। हमारे अन्दर अपनी मिल्लत के लिए बातें करने और अफ़सोस जताने का जज़्बा तो है लेकिन इन हालत को बदलने के लिए कोई ठोस काम करने की इच्छा शक्ति हमारे अन्दर नहीं है। हमें अपना क़ौमी मिज़ाज बदलना होगा। हम में से हर एक के सीने में अल्लाह ने तमाम सामान रखा है, हम में से हर आदमी अपने लिए ख़ुद एक आईना बना सकता है। हमें यह समझना होगा कि व्यक्तिगत वजूद एक भ्रम है और मिल्लत का सामूहिक वजूद ही हमारी वास्तविकता है। हम में से जो लोग अपनी उम्र की तीसरी तिहाई में दाख़िल हो चुके हैं उन्हें ख़ास तौर से हरकत में आना होगा। एसे लोगों को हम कीमियागर (कच्चे तांबे को सोने में परिवर्तित करने वाला रसायन वैग्यानिक) का नाम दे सकते हैं। यह शब्दावली अल्लामा इक़बाल ने अपने कलाम में इस्तेमाल की है। इन कीमियागरों को देश के अन्दर मिल्लत को उपर उठाने की ज़िम्मेदारी अपने हाथ में लेनी होगी और मिल्लत के नोनिहालों को बनाने, संवारने व परवान चढ़ाने का काम करना होगा। लेकिन इस इन्क़लाबी काम में शामिल होने के लिए हर आदमी को अपने अन्दर विनम्रता लानी होगी और ख़ुद को मिल्लत से छोटा समझना होगा। इस काम में अहंकार और अना परस्ती का दख़ल नहीं हो सकता।

उन तमाम चुनाव क्षेत्रों में जहां मुसलमानों की संख्या 15 प्रतिशत या उससे अधिक है, वहां के कीमियागरों को निःस्वार्थ हो कर सक्रिय लीडरशिप की भूमिका निभानी होगी। आप अपने चुनाव क्षेत्र में 10-12 लोगों का एक ग्रूप बनालें, उसे कीमियागर पोलिटिकल – KGP का नाम दिया जा सकता है। अपने में से किसी के घर के एक कमरे में दफ़्तर बनालें और काम शुरू कर दें। अपने चुनाव क्षेत्र में मुसलमानों की कुल संख्या और कुल आबादी का मुस्लिम प्रतिशत भारत के जनसंख्या रेजिस्ट्रार या चुनाव आयोग की वेबसाइट से पता कर लें। फिर राष्ट्रीय, राज्य तथा स्थानीय स्तर पर मुसलमानों की समस्याओं की जानकारी प्राप्त करें और उन समस्याओं के हल के लिए काम करना शुरू करें। एक मंसूबा पांच साल के लिए बनाएं और उसकी रोशनी में साल साल भर की पांच योजनाएं बनाएं। अगला संसदीय चुनाव या तो पांच साल के बाद होगा या उससे पहले कभी भी। विधान सभा के चुनाव भी इसी बीच में होंगे। कीमियागरों का यह ग्रूप 2 साल के अन्दर इतना काम कर सकता है कि स्थानीय मुसलमानों का उस पर भरोसा बन चुका हो और चुनाव के समय यह ग्रूप मुस्लिम मतदाताओं को जो राय दे उसे सभी मुसलमान मान लें।

KGP की तरह कीमियागरों का एक ग्रूप KGA होना चाहिए। यानि कीमियागर एडमिनिस्ट्रेटिव। इसे एक रजिस्टर्ड ट्रस्ट के रूप में खड़ा करें। अपने क्षेत्र के क़ाबिल ग्रेजुएट व पोस्ट ग्रेजुएट स्टूडेंट्स का चयन करके उन्हें यूपीएससी तथा स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन के मुक़ाबलों में भाग लेने के लिए तैयार करें। इस ग्रूप को एक सिविल सर्विस स्ट़डी सेन्टर क़ायम करना होगा। इसकी शुरुआत किसी इमारत से करें लेकिन जल्द ही उसकी मिल्कियत KGA के नाम करा दी जाए ताकि यह काम 50-100 सालों तक चलता रहे। वहां लाएब्रेरी, रीडिंग रूम और लेक्चर रूम हो। इन बच्चों की कोचिंग बहतरीन प्राइवेट कोचिंग सेन्टरों में होनी चाहिए। इस के लिए ज़रूरत मन्द बच्चों को माली मदद भी देनी होगी। लेकिन इसका मतलब किसी को व्यक्तिगत फ़ायदा पहुंचाना नहीं बल्कि मिल्लत को सशक्त बनाने के उद्देश्य से व्यक्ति को तैयार करना होगा। KGP व KGA की निःस्वार्थ कारकरदगी से 5-7 साल में ही मिल्लत के हक़ में इनशाअल्लाह देश व्यापी स्तर पर अच्छे नतीजे सामने आएंगे। फिर हम केवल मुज़फ़्फ़रनगर, गुजरात और कोकराझार जैसी स्थितियों से बचेंगे ही नहीं बल्कि मिल्लत के कल्याण के लिए बनने वाली स्कीमों को लागू करने के लिए भी प्रशासन को प्रभावित कर सकते हैं और अपने संवैधानिक अधिकारों के पालन को भी सुनिश्चित कर सकते हैं।
 

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