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जानिए इस्लाम की मंशा

अदील अख़तर

इस्लाम! इस्लाम!! इस्लाम!! क्या चाहता है इस्लाम और क्या चाहते हैं मुसलमान?

यह सवाल हर आदमी के मन में चुभ रहा है। बहुत कम लोग हैं जो दुनिया में चल रही उथल पुथल से बैचेन नहीं हैं या उसकी उलझन उन्हें परेशान नहीं कर रही है। इस लिए यह सवाल आज दुनिया का बड़ा मुद्दा है। तो आईए इस मुद्दे को समझें। एकान्त और शान्त मन से इस बात को जानने की कोशिश करें कि इस्लाम और मुसलमान पिछले 15-20 साल में अचानक इतना बड़ा मुद्दा क्यों बन गए हैं।

इस्लाम

इस पूरे मुद्दें को समझने के लिए पहले इस बात को जानना ज़रूरी है कि आख़िर इस्लाम है क्या।

यह तो सब जानते हैं कि इस्लाम अन्य धर्मों की तरह एक धर्म है जिसमें एक ईशवर की परिकल्पना है, पैग़म्बरों को माना जाता है, ईशवर की आराधना या इबादत का एक विशेष ढंग है जिसे नमाज़ कहते हैं, कुछ त्योहार हैं, कुछ विशेष आयोजन होते हैं, अच्छी बातें बताई जाती हैं। लेकिन! ...... लेकिन! यह सारी बातें तो दूसरे धर्मों में भी है, सब की अपनी अपनी मान्यताएं, अपने अपने तरीक़े हैं, फिर इस्लाम इसके अलावा और क्या है?

सच्चाई यह है कि इस्लाम को एक धर्म के रूप में जाना तो जाता है लेकिन इस्लाम के मूल स्रोत क़ुर्आन (पैग़म्बर पर अवतरित हुई ईशवाणी) और हदीस (पैग़म्बर के अपने कर्म व कथन) में इस्लाम को धर्म या मज़हब या रिलीजन नहीं कहा गया है। इसलिए इस्लाम अन्य धर्मों की तरह एक धर्म नहीं है। धर्म अपने सीमित अर्थों में ईश्वर के प्रति आस्था, कर्मकाण्ड और रीति को कहा जाता है। जबकि इस्लाम स्वंय को एक दीन (जीवन प्रणाली) कहता है। जीवन प्रणाली में बेशक सबसे पहले ईश्वर के प्रति आस्था और धार्मिक कर्मकाण्ड आते हैं लेकिन जीवन प्रणाली केवल आस्था या कुछ कर्मकाण्डों तक सीमित नहीं होती बल्कि जीवन के सिद्धान्त और मूल मन्त्र से शूरू हो कर पूरे जीवन चक्र और उसके नियमों को अपने अपने दायरे में लेती है।

इस्लाम के दीन होने का अर्थ यह है कि इस्लाम में ईश्वर के प्रति जो आस्था है उसके अनुसार पूरे जीवन का एक सिद्धांत है और उस सिद्धांत के अनुसार जीवन के हर मामले के लिए एक नियमावली है जिसे शरीअत कहते हैं। अगर मुसलमान केवल आस्था को अपनाए रहें और उसके अनुसार केवल कुछ इबादत की रस्में तथा सास्कृतिक कर्मकाण्ड करते रहें, लेकिन शरीअत से मुक्त हो जाएं तो वे अधूरे मुसलमान होंगे, इस्लाम को अपनी जीवन प्रणाली (दीन) बनाने की उनकी इच्छा और ज़िम्मेदारी पूरी नहीं होगी।

इस्लामी जीवन प्रणाली

इस्लामी जीवन प्रणाली इस मूलमंत्र पर आधारित है कि इस पूरे ब्रह्माण्ड और जगत को अल्लाह ने बनाया है, अल्लाह इस का और इसमें मौजूद हर जीव-जन्तु, प्राणि और वस्तु को पालता है, वही सब का मालिक और हाकिम है और केवल वही पूजनीय है। इस्लाम का मूलमन्त्र उसका यह कलमा है कि ला इलाहा इल्लल्लाह (अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूजनीय नहीं है), सन्सकृत भाषा में इसका उच्चारण इस तरह किया जाता है कि एकम ब्रह्मः द्वित्यः नास्ति, नेह न नास्तिः किन्चनः

(शोधकर्ताओं की खोज यह है कि यह कथन आदिकाल के वेद मन्त्रों का एक श्लोक है इस लिए आज वेद के नाम से विभिन्न ऋषिमुनियों के विचारों, कथनों और दर्शनों के जो संकलन प्रकाशित होते हैं उनमें यह श्लोक मौजूद है। माना जाता है कि यह प्राचीन काल में भारत में आने वाले किसी ईश दूत के साथ उतरे किसी गृन्थ का श्लोक हो सकता है)।

‘अल्लाह के अतरिक्त कोई पूजनीय नहीं’ का अर्थ यह है कि जो व्यक्ति इस बात को अपनी आस्था बना ले उसे फिर किसी अन्य हस्ती या वस्तु के आगे न तो नतमस्तक करना है, न स्वंय को अल्लाह के अलावी किसी के आगे समर्पित करना है। उसे केवल अल्लाह के ही आगे झुकना है, उसी की आराधना करनी है, उसी के आगे स्वंय को समर्पित करना है, उसी के दिशा निर्देश के अनुसार जीवन को बिताना और जीवन की सभी गतिविधियों को अंजाम देना है।

इस्लाम का शाब्दिक अर्थ होता है स्वंय को अल्लाह के आगे समर्पित करना। इस तरह इस्लाम एक ऐसी जीवन प्रणाली है जिसमें अल्लाह को सर्वोपरि मान कर उसकी इच्छा और निर्देश के अनुसार जीवन को संयोजित किया जाता है। अल्लाह के अन्तिम गृन्थ पवित्र क़ुर्आन में अल्लाह की यह उद्घोषणा है कि इन्नद्दीनः इन्दल्लॉहिल इस्लाम । अर्थात अल्लाह के नज़दीक इस्लाम ही वास्तविक दीन (जीवन प्रणाली) है।

अल्लाह ने अपने दिशा निर्देश दुनिया में अपने विशेष दूतों के माध्यम से दिए हैं जिन्हें पैग़म्बर या रसूल कहा जाता है। अल्लाह ने दुनिया में बहुत से पैग़म्पर पैदा किए जिन्होंने समय समय पर अपने अपने समाज में अल्लाह के आज्ञा पालन की सीख दी। पैग़म्बरों की इस श्रंखला की अन्तिम कड़ी हज़रत मुहम्मद साहब हैं (सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम/उन पर अल्लाह की कृपा हो)। अतः इस्लाम की जीवन प्रणाली हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम ने निर्धारित की है। आप के उपर अल्लाह का आख़री कलाम उतरा जो पवित्र क़ुर्आन में संकलित है। इसे हज़रत मुहम्मद साहब ने अपने सामने संकलित और क्रमित कराया और हमेशा के लिए सुरक्षित किया। इस क़ुर्आन में मुहम्मद साहब का अपना कोई कथन शामिल नहीं है। आपके अपने कथन और कर्मों का विवरण हदीस के नाम से अलग संकलित किया गया है जो आपके साथियों (सहाबियों) ने और उनके बाद आने वाले विशिष्ठ आलिमों ने एकत्र किया है और उनकी विश्वसनीयता की छान बीन करके उन्हें प्रकाशित किया है।

शरीअत का आधार

क़ुर्आन की शिक्षाओं और मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम के द्वारा उसकी व्याख्याओं से जीवन की जो नियमावली बनी है उसे शरीअत कहते हैं। इस नियमावली के अनुसार अल्लाह की उपासना करना और जीवन की गतिविधियों को नियोजित करने का नाम इस्लाम है।

मुसलमान

मुसलमान का शाब्दिक अर्थ होता है अल्लाह के आगे आत्मसमर्पण करने वाला। कोई व्यक्ति जब यह बात मान लेता है कि उसे अपना जीवन इस्लाम और इस्लामी शरीअत के अनुसार बिताना है तो वह मुसलमान कहलाता है। इस लिए जब कोई व्यक्ति मुसलमान होने का फ़ैसला करता है तो इसे धर्म परिवर्तन कहना सही नहीं है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि वह अभी तक अल्लाह की बन्दगी से आज़ाद रह कर ग़लत मान्यताओं के साथ जी रहा था अब उसने वह रास्ता अपना लिया है जो अल्लाह के नज़दीक जीवन बिताने का सही रास्ता है।

किसी मुसलमान परिवार में पैदा होने वाला बच्चा स्वभाविक रूप से और नियमानुसार मुसलमान ही होता है लेकिन उसे अल्लाह की नज़र में अच्छा मुसलमान बनने के लिए न केवल शरीअत को मानना ज़रूरी होता है बल्कि उस पर अमल करना भी ज़रूरी होता है।

दुनिया में मुसलमानों का फैलाव

दुनिया में मुसलमानों का फैलाव दो तरह से हुआ है। एक तो विभिन्न क़ौमों और लोगों के द्वारा इस्लाम स्वीकार किए जाने से और दूसरे वंशगत रूप से, यानि मुसलमानों की आबादी बढ़ने से। पहली बार अन्तिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब ने जब अरब में इस्लाम का पैग़ाम लोगों को दिया तो वहां कोई मुस्लिम समुदाय मौजूद नहीं था, बल्कि जिन लोगों ने इस्लाम को मान लिया वे मुसलमान कहलाए। उसके बाद इस्लाम का जो फैलाव हुआ वह लोगों के द्वारा इस्लाम को अपना लेने से ही हुआ।

इस्लाम को अपना लेने का फ़ैसला करना हर आदमी की अपनी आज़ाद मर्ज़ी पर निर्भर है। क्योंकि यह इस्लाम के बुनियादी उसूलों में से है कि किसी को ज़बरदस्ती मुसलमान नहीं बनाया जा सकता। क़ुर्आन में अल्लाह का साफ़ साफ़ आदेश है किः

दीन के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं, सही रास्ता ग़ल्त रास्ते से अलग दिखा दिया गया है, अब जो अल्लाह से भटकाने वाली वाली हर शक्ति, वस्तु और आस्था को नकार कर केवल अल्लाह को अपना पूजनीय, पालनहार और स्वामी मान ले, उसने मज़बूत ठिकाना पकड़ लिया। (2:256)

इसी तरह पैग़म्बर को सम्बोधित करके अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में कई जगह इस तरह की बात कही है किः

आप इन को सीख दिए जाइए, आप केवल सीख देने वाले हैं इन को मजबूर करने वाले वाले नहीं हैं। (88:21,22)

इस लिए हज़रत मुहम्मद साहब (सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम) ने मक्का में 13 साल तक अपना सन्देश और अल्लाह का कलाम समझा बूझाकर अनुनय और विनय से दिया। आप किसी के पीछे नहीं पड़ते थे क्योंकि ख़ुद अल्लाह ने आप को इस से यह कह कर रोक दिया था किः

ऐ पैग़म्बर आप कह दीजिए कि ए इन्सानो ! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से सत्य आ गया है। अब जो सीधे रास्ते को अपनाता है तो अपना ही भला करता है, और जो भटकता है तो उसके भटकने की ज़िम्मेदारी उसी पर है, और मैं तुम्हारे उपर कोई वकील नहीं हूं। (11:108); अगर यह मुंह फेरते हैं तो तुम भी मुंह फेर लो; अगर तुम्हे झुटलाते हैं तो कह दो कि मेरे लिए मेरा अमल है और तुम्हारे लिए तुम्हारा अमल (10:41)

अतएव, मक्का में जिन लोगों ने इस्लाम क़ुबूल किया उन्होंने इसे एक सही रास्ता मान कर और मुहम्मद साहब को सच्चे मन से अल्लाह का पैग़म्बर मान कर यह फ़ैसला किया, और फिर बहुत कठिनाइयों, यातनाओं और उत्पीड़न को झेल कर भी इस विश्वास पर जमे रहे कि अल्लाह को ही पूजनीय मानना है और मुहम्मद साहब का अनुसरण करते हुए ही जीवन बिताना है।

लेकिन मक्का के जो प्रभुत्वशाली लोग थे, जिनमें मुहम्मद साहब के परिवार के बहुत से लोग भी शामिल थे, वे सामाजिक बदलाव की इस लहर से ख़ुश नहीं थे। उन्हें इस बात पर कड़ी आपत्ति थी कि सदियों से चली आ रही मान्यताओं को झुटलाया जाए, अपने पूर्वजों से मिली सन्सकृति को बदला जाए और एक आदमी के कहने पर जो कि अपने को पैग़म्बर कहता है उस प्रचलित व्यवस्था को बदल दिया जाए जिसमें ऊंच नीच, छोटे-बड़े, मालिक व ग़ुलाम, और इस जैसी कितनी स्वंयभू मान्यताएं चली आ रही थी। इस वजह से उन्होंने मुहम्मद साहब का विरोध किया, उन्हें अपना सन्देश देने से रोकने की कोशिश की, उनका सन्देश मानने वाले लोगों को मारना और सताना शुरू किया और ख़ुद मुहम्मद साहब को कष्ट दिए और फिर उनकी हत्या का प्रयास किया। लेकिन मुहम्मद साहब इन सब के बावजूद अपने मिशन पर ड़टे रहे क्योंकि उन्हें अल्लाह ने इसी काम के लिए नियुक्त किया था।

प्रतिरोध और प्रताढ़ना की यह स्थिति जब हद से ग़ुज़र गयी और मक्का में नए लोगों का इस्लाम में आना भी रुक गया और एक दूसरे शहर यसरब (मदीना) के प्रभुत्वशाली लोगों ने उन्हें अपने यहां आने का बुलावा दिया तो अल्लाह की अनुमति पाकर मुहम्मद साहब मदीना पलायन कर गए। मदीना के प्रभुत्वशाली लोगों ने उन्हें अपना सरदार बना लिया और अधिकांश लोग उन पर विश्वास करके मुसलमान बन गए। तब मुहम्मद साहब ने धीरे धीरे एक एसा समाज विक्सित किया जिसमें लोग मुहम्मद साहब के बताए हुए तरीक़े के मुताबिक अल्लाह की इबादत भी करते थे और जीवन के तमाम मामलों में अल्लाह और उसके पैग़म्बर के आदेश को अपने ऊपर लागू करते थे। इस तरह यह पूर्ण इस्लामी राज्य बन गया जिसका अपना अधिकार क्षेत्र था, अपनी आबादी थी और अपनी संप्रभु सरकार थी। मुहम्मद साहब इस सरकार के मुखिया थे और अल्लाह के क़ानून अनुसार सरकार चलाते थे।

इस्लाम की ख़ातिर लड़ाई की शुरूआत

लेकिन मदीना में यह स्वतन्त्र समाज और सरकार बनते ही इसको मिटाने के प्रयास ज़ोर पकड़ गए। मक्का में जो लोग मुहम्मद साहब को अपना सन्देश देने से रोकते थे, सबसे पहले उन्होंने ही मदीना पर चढ़ाई की और यह प्रयास किया कि इस नए आन्दोलन को यहीं रोक दिया जाए और इसे नेस्त व नाबूद कर दिया जाए। अब मुहम्मद साहब के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि मक्का वालों की आक्रामकता का मुक़ाबला करें। क्योंकि वह इस बात पर समझौता नहीं कर सकते थे कि जो लोग अपनी मर्ज़ी से इस्लाम क़ुबूल कर रहे हैं और जिन्होंने उनको अपना मुखिया बना लिया है उनको वह यह कहें कि तुम इस्लाम छोड़ दो, मैं भी अपना सन्देश देने का काम बन्द करता हूं और मुझे अल्लाह ने इन्सानों के मार्गदर्शन की जो ज़िम्मेदारी दी है मैं उससे मुक्त हो जाता हूं। क्योंकि एसा करने पर आप ख़ुद अल्लाह के मुजरिम बन जाते। इस लिए बराबर का पलड़ा न होने के बावजूद और स्थितियां अनुकूल न होने के वावजूद उन्होंने अपने थोड़े से ही साथियों के साथ मदीना से बाहर निकल कर मक्का से आने वाली फ़ौज का सामना किया और पूरे उत्साह के साथ उनके साथ लड़ाई की। यह अल्लाह की महरबानी थी कि मुहम्मद साहब और उनकी छोटी से फ़ौज़ जिसमें बच्चे और औरतें भी थीं, और हथ्यार व घोड़े भी बहुत कम थे, जीत गयी और मक्का से आने वाले दुशमन बड़ा नुक़सान उठा कर भाग खड़े हुए।

यहां से इस्लाम के लिए लड़ाई का सिलसिला शुरू हुआ। मुहम्मद साहब को अपने जीवनकाल में बहुत सी लड़ाइयां लड़नी पड़ीं। यह लड़ाइयां पहले मक्का वालों से और उनके भड़काने पर लड़ने के लिए उठने वाले अरब द्वीप के अन्य क़बीलों से और फिर मदीना के आस पास रहने वाले यहूदियों से और ईसाइयों से हुईं। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि मुहम्मद साहब का मिशन अल्लाह की तरफ़ लोगों को बुलाना, अल्लाह के दिशा निर्देश में जीवन बिताने की सीख देना और जो लोग इस सन्देश को अपनाने की चाह रखें उनके लिए रास्तों को खोलना व रुकावटें दूर करना था। लड़ाई आपकी मजबूरी थी, आपकी पहली इच्छा नहीं थी। लेकिन जब लड़ाई की ज़रूरत पड़ी तो आपने बुज़दिली और कम हिम्मती से काम नहीं लिया बल्कि पूरी योजना बना कर, पूरी ताक़त जुटा कर, लड़ाई के बहतरीन गुर अपना कर और पूरे जोश के साथ जंग की और अपनी फ़ौज को कमाण्ड किया।

लड़ाई में मुहम्मद साहब की पूरी कोशिश यह होती थी कि दुश्मन की हिम्मत टूट जाए, उसके अन्दर डर और भय पैदा हो जाए, वह इस्लाम और मुसलमानों को कुचल कर ख़त्म कर देने का ख्वाब देखना छोड़ दे। लेकिन आपकी कोशिश यह होती थी कि जंग जल्द से जल्द ख़त्म हो जाए, लोगों को ज़्यादा मारना न पड़े, ज़्यादा ख़ून न बहे। इस लिए मुहम्मद साहब के ज़माने में जो लडाइयां हुई हैं उनमें कुल 1018 लोगों की जानें गयीं, जिनमें 259 मुसलमान और 759 ग़ैर-मुसलमान थे।

इस्लाम के विस्तार का ढंग

मुहम्मद साहब के ज़माने में इस्लाम का विस्तार अरब से बाहर होना शुरू हो गया था फिर आपके बाद आपके ख़लीफ़ाओं के ज़माने में इसका फैलाव एशिया, यूरोप, और अफ़रीक़ा महाद्वीपों के अनेक देशों तक हुआ। यह विस्तार दो तरह से हुआ। एक सरकारी तरीक़े से दूसरे ग़ैर सरकारी तरीक़े से।

मुहम्मद साहब ने मदीना में इस्लामी सरकार बनाने के बाद उस समय के बड़े सम्राटों और राजों व महाराजों को पत्र लिख कर इस बात की सूचना दी कि वह अल्लाह के पैग़म्बर हैं और उन्हें यह सन्देश दिया के वे अल्लाह को अपना पालनहार, मालिक व स्वामी मान लें और अल्लाह की इच्छानुसार समाज को संचालित करने के लिए मुहम्मद साहब को पैग़म्बर मानकर उनका अनुसरण करें। आपके इस सन्देश को पहली बार में बहुत कम लोगों ने माना, इसके बजाए उन्होंने इसका अर्थ यह निकाला कि मुहम्मद साहब कोई महत्वाकांक्षी योद्धा हैं जो अपने राज्य का विस्तार चाहते हैं इसलिए उन्होंने मुहम्मद साहब से लड़ने के लिए फ़ौजें भेजनी शुरू कर दीं। जिसकी वजह से मुहम्मद साहब ने भी उनका मुक़ाबला करने के लिए अपनी फौजों को आगे बढ़ाया। इसी तरह यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा। इस सिलसिले के चलते लड़ाइयां एक लगातार जारी रहने वाली प्रक्रिया बन गयीं और उस ज़माने के चलन के मुताबिक़ भागने और हारने वाले दुशमन के इलाक़े पर अपनी फ़ौज नियुक्त की जाती रही।

लेकिन जहां जहां भी इस्लामी फ़ौज पुहंची वहां उसने लड़ने से पहले और लड़ने के बाद जिस सिद्धांत का पालन किया उसे समझने की ज़रूरत है। पैग़म्बर साहब हज़रत मुहम्मद (सल्ल्ल्लाहो अलैह वसल्लम) जब कोई टुकड़ी दुश्मन से लड़ने के लिए भेजते थे यह यह हुक्म देते थेः-

अल्लाह का नाम लेकर दुश्मन से लड़ो, चोरी न करो, समझौते का उल्लंघन न करो, दुश्मन के शरीर के टुकड़े न करो, बच्चों को मत मारो, दुश्मन के सामने तीन प्रस्ताव रखो, इनमें से जो बात भी वे मान लें उसे स्वीकार करो, 1) उन्हें अल्लाह का बन्दा बनने का निमन्त्रण दो, वे यह बात मान लें तो उन्हें अपने यहां से निकल कर मुसलमानों की सीमा में आने को कहो, अगर वे एसा करेंगे तो उनके अधिकार और ज़िम्मेदारियों उन मुसलमानों के बराबर होंगी जो मक्का से मदीना आ चुके हैं, अगर वे मुसलमान हो कर अपना देस छोड़ने को तैयार न हों तो उन से कह दो वे उन मुसलमानों की तरह होंगे जो दुश्मन के इलाक़े में रह रहे हैं और मुसलमानों के नफ़ा नुक़सान में उनका हिस्सा नहीं है। 2) अगर वे मुसलमान होने से इंकार करें तो उनसे टैक्स वसूल करो, वे टैक्स देने (मुसलमानों की सत्ता को मानने) पर राज़ी हों तो उनसे न लड़ों, 3) अगर वे टैक्स देने पर भी राज़ी न हों तो उनसे मुक़ाबला करो।

बाद में आप के ख़लीफ़ाओं (उत्तराधिकारियों) ने भी इसी सिद्धांत का पालन किया और अपने सेनापतियों को साफ़ शब्दो में कड़े निर्देशों के साथ भेजा। पहले ख़लीफ़ा हज़रत अबुबक्र (अल्लाह उन से राज़ी हो) ने पहली सेनिक कार्रवाई के लिए सेना रवाना करते हुए सेनापति हज़रत उसामा को निर्देश दिया था किः

हक़ न मारना, (2) झूठ न बोलना, (3) वचन न तोङना, (4) बच्चों, बूढ़ो और औरतों को क़त्ल न करना, (5) किसी फलदार पेङ को न काटना न जलाना, (6) खाने की ज़रूरत के अतिरिक्त पशुओं को न काटना, (7) जब किसी बस्ती में पहुंचो तो बस्ती वालों को नम्रता और शालीनता के साथ इस्लाम स्वीकार करने का प्रस्ताव देना। (8) जब किसी से मिलना तो उसके मान सम्मान और प्रतिष्ठा का ध्यान रखना, (9) जब खाना तुम्हारे सामने आए तो अल्लाह का नाम लेकर खाना शुरू करना, (10) यहूदियों और ईसाइयों (या अन्य समुदायों) के सन्यासियों से जो अपने धर्म स्थलों में सीमित रहते हैं, न उलझना, (11) रसूलुल्लाह ने जिन कामों को करने का निर्देश दिया है उनके करने में न कुछ कमी करना न उन्हें बढ़ाना, (12) अल्लाह के नाम पर और अल्लाह के लिए ही विरोधियों व शत्रुओं से लङना।

इन निर्देशों का पालन फौज और फ़ौज के सरदारों पर ठीक इसी तरह अनिवार्य होता था जिस तरह नमाज़ पढ़ना और इबादत करना उनके लिए ज़रूरी था। क्योंकि पैग़म्बर और उनके उत्तराधिकारियों का आदेश मानना हर मुसलमान के उपर फ़र्ज़ है, उनकी अनदेखी करके वे इस्लाम से बाहर हो जाते। इसलिए इन निर्देशों का पूरा पूरा पालन किया जाता था, और किसी उल्लंघन की सूरत में उल्लंघन करने वाले को सज़ा मिलती थी।

आस्था की आज़ादी

दुनिया में जहां जहां इस्लाम का शासन फ़ौजी ताक़त और सरकारी तरीक़े से क़ायम हुआ वहां आम लोगों को अपना विश्वास और अपनी धार्मिक मान्यताएं छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया गया, बल्कि उनको निरंकुश शासकों से केवल मुक्ति दिलाई गयी। उनके उपर अल्लाह के क़ानून (शरीअत) के अनुसार ऐसा शासन स्थापित किया जाता था जिसमें कोई किसी का उत्पीड़न न कर सके, किसी पर अत्याचार न हो, और सामूहिक जीवन को नुक़सान पहुंचाने वाली कोई गतिविधि या व्यवस्था न हो।

जो लोग मुसलमान बन जाते थे उन पर शरीअत के क़ानून को मानने और मज़हब (दीन) के अनुसार चलने को अनिवार्य किया जाता था और उसका पालन न करने पर उन्हें सज़ा दी जाती थी, लेकिन जो लोग मुसलमान बनना मंज़ूर नहीं करते थे और अपनी पुरानी आस्थाओं पर चलते रहना चाहते थे, उन्हें उसकी इजाज़त होती थी। वे अपने निजी स्थानों पर अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार अपनी पूजा अर्चना करने के लिए स्वतन्त्र थे। अपने अपने हिसाब से अपने धार्मिक कर्मकाण्ड करने वालों को अपने पूजा स्थलों में भगवान या ख़ुदा को याद करने में मदद करना और उनकी सुरक्षा करना, लड़ाई के दौरान उन पर कोई हमला न करना खुद क़ुर्आन में मुसलमानों पर फ़र्ज़ किया गया है। इस लिए सब को धार्मिक आज़ादी हासिल थी। लेकिन मुसलमानों को भटकाने या उन्हें दीन से फेरने वाली कोई गतिविधि करने की इजाज़त किसी को नहीं होती थी।

ज़कात और जिज़िया

उस ज़माने की इस्लामी हुकूमत मुसलमानों से ज़कात वसूल करती थी और ग़ैर मुसलमानों से जिज़िया। ज़कात और जिज़िया दोनों वित्तीय कर हैं। ज़कात हर मालदार मुसलमान पर हर साल अपने कुल माल के 2.5 प्रतिशत के बराबर निकालना अनिवार्य है। इस माल से समाज के ग़रीब और ज़रूरत मन्द लोगों की मदद की जाती है। जबकि ग़ैर मुसलमानों से लिया जाने वाला जिज़िया स्वंय उनकी सुरक्षा और अऩ्य ज़रूरतों पर ख़र्च करने के लिए लिया जाता था। ज़कात और जिज़िए में फ़र्क़ यह है कि ज़कात एक इबादत है जिसका सवाब (पुण्य) मुसलमानों को मिलता है और यह इस्लाम व इस्लामी शासन के प्रति समर्पण का प्रतीक है, जबकि जिज़िया केवल शासन या सरकार को मानने और उसके प्रति वफ़ादार बने रहने का प्रतीक है।

इस तरह जब इस्लामी शासन कहीं क़ायम होता था और मुसलमानों को व्यवस्था चलाने का मौक़ा मिलता था तो वहां के आम लोग इस व्यवस्था से भी प्रभावित होते थे, मुसलमानों के चरित्र और व्यवहार से भी ख़ुश होते थे और यह बात भी उनके मन में बैठती थी कि मुसलमानों का दीन/धर्म उत्कृष्ट है, ईश्वर के प्रति इनकी आस्था साफ़ सुथरी और समझ में आने वाली है, मरने के बाद ख़ुदा के सामने खड़े होने के डर से यह सब के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, इन्साफ़ और ईमानदारी से काम करते हैं और सुरक्षा, स्वतन्त्रता व शान्ति देते हैं। इन ख़ूबियों से प्रभावित हो कर लोग मुसलमान हो जाते थे, बड़ी बड़ी क़ौमें और समुदाय ख़ुद ही मुसलमान होते गए और इस्लामी शासन के साथ साथ इस्लामी मत भी फैलता गया।

स्वशासन

जहां जहां भी लोगों ने इस्लाम क़ुबूल किया वहां उन्हें स्वाधिकार दिया गया और अपना शासन स्वंय चलाने का अवसर दिया गया। इस्लाम क़ुबूल न करने वाले स्थानीय शासक भी अगर आज्ञा पालन का समझौता करते थे तो उन्हें भी बाक़ी रखा जाता था और वे वहां के राजा बने रहते थे, लेकिन आम लोगों के साथ इन्साफ़ करना, लोगों को उनके अधिकार देना और उत्पीड़न करने वाली व्यवस्था को ख़त्म करना उनके लिए ज़रूरी होता था।

तो, सरकारी स्तर से इस्लाम का विस्तार और मुसलमानों की बढ़ौतरी तो इस तरह हुई।

ग़ैर सरकारी तरीक़े से इस्लाम के प्रचार और मुसलमानों की संख्या बढ़ने का मामला यह है कि आदर्श इस्लामी शासन के ज़माने में भी और बाद में मुसलमान बादशाहों की व्यक्तिगत व परिवारिक हुकूमतों में भी इस्लाम का प्रचार करने वाले सदारचारी लोगों ने अपने स्तर से लोगों को इस्लाम समझाने व सिखाने का काम जारी रखा। चूंकि हर तरफ़ सामाजिक बदलाव की एक लहर चल पड़ी थी इसलिए लोगों ने बड़ी तेज़ी के साथ अपनी पिछली मान्यताएं छोड़ कर इस्लाम को अपनाया। इस्लाम को अपनाने की यह प्रक्रिया लगातार जारी रही। नए नए लोग, और नए नए बादशाह, मुखिया व सरदार इस्लाम को अपनाकर मुसलमान बनते गए और मुसलमानों का फैलाव दुनिया में हर तरफ़ हो गया। जिस ज़माने में आदर्श इस्लामी शासन नहीं रहा और मुसलमान बादशाहों की दुनियादार हुकूमतें बन गयीं, जिन्होंने अल्लाह की हुकूमत क़ायम करने और इस्लाम के प्रचार व मानवता के सुधार की ज़िम्मेदारी निभाने से ज़्यादा अपनी शान बनाने और अपना निजी प्रभुत्व स्थापित करने पर ध्यान दिया उस ज़माने में भी अल्लाह के नेक बन्दे लोगों को इस्लाम का सन्देश पहुंचाने का काम करते रहे। जिसके नतीजे में लोग मुसलमान होते गए। सूफ़ी सन्तों की इसमें ख़ास भूमिका रही जिन्होंने दुनियादारी से हट कर लोगों को इस्लाम का सन्देश देने का काम किया। भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया के दूसरे इलाक़ों जैसे म्यानमार, मलेशिया, इण्डोनेशिया, सिंगापुर आदि में इस्लाम के प्रसार का बड़ा काम इन सूफ़ी सन्तों के माध्यम से ही हुआ है। इस ग़ैर सरकारी तरीक़े में हूकूमत, फ़ौज और ताक़त की कोई भूमिका नहीं है।

इस्लामी शासन व्यवस्था का ख़ात्मा और मुसलमानों का पतन

इस्लाम के आग़ाज़ में पैग़म्बर साहब (मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम) ने जो व्यवस्था बनाई थी और जिसे उस समय का इस्लामी राज्य कहा जाता है, उसे पैग़म्बर साहब के बाद उनके ख़लीफ़ाओं ने चलाया। ख़लीफ़ा का चयन और उनकी मंज़ूरी आम लोगों की तरफ़ से उस वक़्त के वे ख़ास लोग करते थे जिन्हें आम लोगों का विश्वास प्राप्त था। फिर आम लोग उनके आज्ञा पालन की शपथ लेते थे। इस तरह यह एक लोकतान्त्रिक या लोकप्रिय व्यवस्था थी। बाद में इसमें उत्तराधिकारी घोषित करने की परम्परा चल पड़ी जो इस्लामी शिक्षाओं के ख़िलाफ़ एक परम्परा थी।

पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल्लाहो अलैह वसल्लम के नाती इमाम हुसैन (अल्लाह उन से राज़ी हो) की शहादत इस परम्परा को शुरू होने से रोकने की कोशिश में ही हुई थी। लेकिन जब यह परम्परा चल पड़ी तो फिर चल निकली। यह इस्लाम की शासन व्यवस्था में पहली और सबसे घातक दराड़ थी। जिसका नुक़सान इस्लाम को पहुंचता रहा। मगर इस ख़राबी के बावजूद मुसलमानों की विभिन्न सल्तनतों ने 1924 तक दुनिया में अपनी सत्ता बनाए रखी। इस दौरान हालांकि एक ही समय में शक्ति और सत्ता के कई कई केन्द्र हुआ करते थे, लेकिन दो बातें एसी थीं जिसकी वजह से इस्लाम का प्रभाव और मुसलमानों का सम्मान बना रहा। एक बात तो यह थी कि ख़लीफ़ा की गद्दी बनी रही थी और आज़ादी के साथ अपना व्यक्तिगत शासन चलाने वाले मुसलमान राजा व महाराजा ख़ुद को ख़लीफ़ा के साथ जोड़े रखते थे, उनका सम्मान करते थे और उनकी धार्मिक स्थिति को मंज़ूर करते थे। दूसरी बात यह थी कि ख़लीफ़ा के शासन में भी और आज़ाद राजों महाराजों के शासन में भी क़ानून शरीअत का ही चलता था। जिसकी वजह से शासन सम्बन्धी कुछ मामलों को छोड़ कर मुसलमानों का सामूहिक जीवन दीन और शरीअत के मुताबिक़ ही चलता रहा।

ख़लीफ़ाओं का यह शासन दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1924 में ख़त्म हो गया। यह मुसलमानों के राजनीतिक पतन की शुरूआत थी और इस के प्रयास यूरोप की साम्राजवादी शक्तियां पिछले काफ़ी समय से करती आ रही थीं। यूरोपीय देशों के साम्राजी विस्तार का प्रतिरोध दुनिया के बड़े हिस्से में ख़लीफ़ा की हुकूमत और दूसरे आज़ाद मुस्लिम राजाओं ने किया था। इस लिए जब इन साम्राजी शक्तियों ने मुसलमानों की राजनीतक ताक़त तोड़ दी तो फिर मुसलमानों को कुचलना शुरू कर दिया। ख़लीफ़ा का शासन तोड़न के बाद मुस्लिम जगत के अनेक देशों पर इन्होंने क़बज़ा कर लिया और अपना उपनिवेशी साम्राज्य स्थापित कर दिया। 19वीं और 20वीं सदीं का सबसे बड़ा साम्राजी देश ब्रिटेन था। जिसने भारत में भी मुग़ल व अन्य मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम शासकों के शासन को निगल लिया था। तुर्की की उस्मानी सल्तनत (ख़लीफ़ा की हुकूमत/ख़िलाफ़त) का सीधा टकराव भी इसी से था। इसी के नैतृत्व में जापान व जर्मनी के ख़िलाफ़ यूरोपीय देशों की गठबन्धन सेनाओं ने विश्व युद्ध छेड़ा था।

पश्चिमी जगत की यह शक्तियां दुनिया के सामने एक नई संस्कृति ले कर आईं। इस सन्सकृति का आधार अल्लाह का इंकार और धर्म व धार्मिक मान्यताओं के विरोध पर था। लेकिन इसके साथ साथ ईसाई धर्म प्रचारक भी अपनी आस्था से लोगों को जोड़ने के लिए सक्रिय हुए। यह दोनों रुजहान इस्लाम और मुसलमानों को नुक़सान पहुंचाने वाले थे। इस लिए मुस्लिम जगत में इसका प्रतिरोध शुरू हुआ। इस दौरान एक नई राजनीतिक सन्सकृति भी विक्सित हो चुकी थी जिसका आधार राष्ट्रवाद और लोकतान्त्रिक शासन पर था। इस आधार पर दुनिया के तमाम उपनिवेशी देशों में साम्राज से मुक्ति के आन्दोलन शुरू हो गए थे। इस लिए मुस्लिम जगत के सभी देशो में भी दोबारा से ख़लीफ़ा का शासन वापिस लाने के बजाए अपने अपने देशों को विदेशी शक्तियों से आज़ाद कराने का संघर्ष शुरू हुआ। फिर धीरे धीरे जब ये देश आज़ाद हुए तो इन पर विदेशी उपनिवेशवादी शक्तियों के कठपुतली शासक बिठा दिए गए।

एक तरफ़ जहां भारत जैसे देशों में लोकतन्त्र को मंज़ूर किया गया और मज़बूत होने का मौक़ा दिया गया वहीं उन देशों में जहां मुसलमान ज़्यादा थे और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में मुसलमानों की ही सरकार बन सकती थी, वहां अमरीका और यूरोपीय देशों ने मिलीभगत से लोकतन्त्रिक और जनता की आजादी वाले निज़ाम को बनने से रोका। इसके लिए उन्होंने फ़ौजी शासन को समर्थन दिया और मुस्लिम जगत में निरंकुश तानाशाह हाकिमों के हाथ मज़बूत किए जो मुसलमानों पर उनकी मर्ज़ी, पसन्द, ईमान, और दीन के ख़िलाफ़ पश्चिमी सन्सकृति को थोपने के प्रयास करते रहे। इस तरह बलपूर्वक मुसलमानों की धार्मिक सन्सकृति को पश्चिम की अधार्मिक सन्सकृति से बदलने की कोशिशें की गयी जो अभी तक जारी हैं।

दूसरी तरफ़ इन शक्तियों ने फ़िलिस्तीन के अन्दर यहूदियों का राज्य इस्राईल स्थापित कर दिया। वे यहूदी जिन्हें यूरोप के लोगों ने कभी अपने यहां सुरक्षा और सम्मान नहीं दिया और जिन्हें जर्मनी के ताना शाह हिटलर ने इनकी कर्तूतों की बहुत बुरी सज़ा दी, उन्हें मुसमानों के सीने में खंजर की तरह घोंप दिया गया। फ़िलिस्तीन के मूलनिवासियों को वहां से मार भगा कर दुनिया में बिखरें हुए यहूदियों को वहां ज़बरदस्ती बसाया जाना दुनिया के सभ्य इतिहास का सबसे बड़ा कलंक है और लोकतन्त्र, मानवता, मानवाधिकार और सभ्यता व सन्सकार के ढोंग रचाने वाली ग़ैर-मुस्लिम दुनिया के झूट और फ़रेब की पोल खोलने वाला और उनके चरित्र की गन्दगी दिखाने वाला सबसे बड़ा आईना है।

यह वह परिदृश्य है जिसमें मुस्लिम जगत के मौजूदा हालात को और इस्लाम की मंशा को समझने की कोशिश की जानी चाहिए।

सबसे बड़ा मुद्दा

मुस्लिम देशों का सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि वहां जनता को अपनी पसन्द का लोकतान्त्रिक निज़ाम बनाने की आज़ादी मिले। यह आज़ादी कई तरह से छीनी जाती रही है, कहीं बादशाह या तानाशाह बैठे रहे, कहीं दिखावे की लोकतान्त्रिक व्यसव्था की आड़ में कुछ ख़ास लोगों की हूकूमतें बनीं रहीं। लेकिन लोकतन्त्र का चैम्पिन बनने वाला अमरीका और दूसरे पश्चिमी देश इस व्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश करते आ रहे हैं। जिन देशों में कोई लोकतान्त्रिक प्रक्रिया शुरू होती है वहां यह अपने राजनीतिक, कूटनीतिक, सैनिक और वित्तीय दांव खेलते हैं। इनके हस्तक्षेप की वजह से साफ़ सुथरी व्यवस्था नहीं बन पाती और अवाम को अपनी पसन्द के चुनाव का मौक़ा नहीं मिलता। कहीं अगर चुनाव होता है और कोई सरकार बनती है तो उस पर यह दबाव बनाया जाता है कि वह उन लोगों को दबा कर रखें जो व्यवस्था को धार्मिक सिद्धांतो पर चलाने की चाह रखते हैं।

धार्मिक व्यवस्था की चाह

1924 में ख़लीफ़ा का शासन ख़त्म हो जाने के बाद इस्लामी दुनिया के कुछ देशों में इस्लामी शासन व्यवस्था को फिर से स्थापित करने के लिए कुछ एसे सोचे समझे आन्दोलन शुरू हुए जिनके पीछे बुद्धिजीवी सोच थी, स्थिति की एतिहासिक विवेचना थी और दीन व शरीअत के प्रति गहरी आस्था, प्रतिबद्धता और खुदा परस्ती का गम्भीर जज़्बा था। इन आन्दोलनों को उठाने वालों ने ख़िलाफ़त की सन्सथा को फिर से स्थापित करने के लिए राजनीतिक और भावनात्मक आन्दोलन नहीं चलाया बल्कि उस मुस्लिम व्यक्तित्व को बनाने की तरफ़ ध्यान दिया जो इस्लामी शासन व्यवस्था को चलाने की ख़ासियत रखता हो, जिसके अन्दर निस्वार्थ रूप से उस समाज को बनाने का जज़्बा हो जिसमें नीचे से ऊपर तक की पूरी व्यवस्था अल्लाह के दिशा निर्देश और पैग़म्बर साहब के पदचिन्हों पर क़ायम हो ताकि पैग़म्बर मुहमम्द साहब ने जो रोल माडल और नमूना छोड़ा था और जिस पर उनके ख़लीफ़ाओं ने अमल किया था उस जैसा जीवन फिर से प्राप्त किया जा सके। इस आन्दोलन को इस्लामिक मूवमेण्ट का नाम दिया गया और इसके कार्यकर्ताओं को इस्लामिस्ट कहा जाने लगा।

इस्लामिक मूवमेण्ट ने शासकों और राजनेताओं से निजी महत्वाकांक्षाओं को छोड़ने और उन विचारधाराओं को नकारने की अपील की जो इस्लामी शिक्षाओं के विपरीत हैं, जैसे राष्ट्रवाद, धर्मविहीन राजनीति और अल्लाह के क़ानून के बजाए ख़ुद क़ानून बनाने की विचार धारा। उन्होंने राजनेताओं और शासकों पर शरीअत का क़ानून लागू करने का दबाव बनाया और मुस्लिम समाज में सम्पूर्ण इस्लामी जीवन की सोच बनानी शुरू की।

इस इस्लामी आन्दोलन को मुस्लिम दुनिया के परम्परावादी दीनदारों ने एक नई सोच समझा और इसका ज़्यादा साथ नहीं दिया। वे लोग बदली हुई स्थितियों में इस्लामी अक़ीदे और इस्लामी इबादत पर जमे रहने को ही सही समझते रहे और राजनीतिक जीवन में उन्होंने इस्लामी सोच को ढूंढने के बजाए प्रचलित व्यवस्थाओं का साथ देने की नीति अपनाई। लेकिन इस्लामी आन्दोलन ने क़ुर्आन, हदीस और शरीअत के दिशा निर्देशों की नए ढंग से जो विवेचना की थी, और नए ज़माने में इस्लाम को व्यवहारिक रूप से लागू करने की जो व्याख्या की थी उसने पूरे मुस्लिम जगत के बुद्धिजीवी और दीनदार वर्ग को प्रभावित किया। और नई पीढ़ी के नवीन शिक्षा प्राप्त लोगों की बड़ी संख्या इस आन्दोलन से जुड़ गयी।

आन्दोलन का प्रभाव और उसे नाकाम बनाने की कोशिश

इस आन्दोलन के प्रभाव से पूरे मुस्लिम जगत में जहां जहां राजनीतिक पार्टी बनाने की आज़ादी थी, इस्लामवादी राजनीतिक दल उभर कर आए। और जिन मुस्लिम इलाक़ों पर विदेशी शक्तियों का क़ब्ज़ा था वहां आज़ादी के आन्दोलन में इस्लामी शासन व्यसव्था के लिए लड़ने वाले लोग भी शामिल हो गए। लेकिन अमरीका, यूरोप और दूसरे ग़ैर-मुस्लिम देशों का पूरा ज़ोर शूरू से इस रणनीति पर लगा रहा कि इस्लामवादी शक्तियों को बढ़ने का मौक़ा न मिले। हालांकि अपने हित साधने के लिए उन लोगों को स्तेमाल करने से इन देशों ने परहेज़ भी नहीं किया। जहां और जब तक इनकी ज़रूरत देखी इनका साथ दिया या लिया और जब काम निकल गया तो इन्हें पीछे धकेलने के प्रयास किए गए।

मिसाल के तौर पर मिस्र में जो इस नए इस्लामी आन्दोलन का एक केन्द्र था, वहां इस्लामिस्ट लोगों के साथ यह खेल बहुत खेला गया। जिन लोगों ने इनकी मदद से सत्ता हत्याई उन्ही लोगों ने सत्ता पाने के बाद इन पर कड़े अत्याचार किए। इनके नेताओं को फांसियों पर चढ़ाया गया, क़ैदख़ानो में डाला गया और हर तरह से इनका उत्पीड़न किया गया। इन पर कड़ी पाबन्दियां लगाई गयीं और राजनीति में आने से रोकने के भरसक प्रयास किए गए। लेकिन इसके बावजूद जब भी नागरिकों को चुनाव की खुली आज़ादी मिली तो उन्होंने इन्ही लोगों को पसन्द किया। और यह तो अभी हाल ही की बात है इन इस्लामवादियों ने जनता के भारी समर्थन और वोट से एक लोकतान्त्रिक सरकार बनाई थी। मगर इस सरकार को चलने नहीं दिया गया, अमरीका, इस्राईल और अन्य देशों की मिलीभगत से वहां के सेना प्रमुख ने उनका तख़्ता पलट दिया और इसी पर बस नहीं किया बल्कि लोकतन्त्र और क़ानून के शासन में यक़ीन रखने वाले जनता के विश्वास प्राप्त इन लोगों को आतंकवादी घोषित करके इन्हें ख़त्म करने की कार्रवाई शुरू कर दी जो पूरी नृशन्सा के साथ जारी है। मगर लोकतन्त्र और मानव अधिकारों की दुहाई देने वाला तथाकथित “विश्व समुदाय” इस पर ख़ामोश ही नहीं बल्कि इससे ख़ुश है।

इसी तरह अफ़ग़ानिस्तान में जहां के लोग रूस की कठपुतली धर्मविरोधी कम्यूनिस्ट सरकार के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष (जिहाद) कर रहे थे, अमरीका ने अपना खेल खेला और उन लोगों की तब तक मदद की जब तक कि रूस वहां से निकल न गया। लेकिन रूस के निकलने बाद अमरीका ने इन मुजाहिदों को जिन्हें वह पहले मुहजाहिदीन ही कहता था, आपस में लड़वा दिया। जो लोग ठोस इस्लामी सरकार बनाने की कोशश में थे उन्हें अलग थलग करने के प्रयास किए और जब एक मिली जुली सरकार बनी तो इसे चलने नहीं दिया जिसकी वजह से अफ़ग़ानिस्तान में लम्बे समय तक गृहयुद्ध चलता रहा। इस गृह युद्ध पर नियन्त्रण पाकर जब तालिबान संगठन ने एक स्थिर सरकार स्थापित करने में कामयाबी हासिल कर ली तो उन्हें आतंकवादी कहा जाने लगा।

मुसलमानों को अपनी आज़ाद मर्ज़ी से अपनी इस्लामी सरकार चुनने से रोकने के लिए अमरीका और उसकी सहायक शक्तियां किस तरह से रुकावट डालती रही हैं इसकी सबसे बड़ी मिसाल अलजीरिया की है। अलजीरिया ने 1962 में फ्रांस की ग़ुलामी से आजादी हासिल की। लेकिन यह आजादी हासिल होने के बाद अलीजीरिया लम्बे समय तक राजनीतिक अस्थिरता से ग्रस्त रहा क्योंकि फ़्रान्स ने उसके अन्दरूनी मामलों से ख़ुद को अलग नहीं किया और अपने हितों को साधने वाले नेताओं और सैनिक कमाण्डरों की मिलीभगत से वहां अपनी मर्ज़ी चलाता रहा।1990 के दशक में वहां की जनता ने अपने भविष्य की दिशा निर्धारित करने के लिए इस्लामिक साल्वेशन फ़्रण्ट नाम के राजनीतिक दल को ताक़त दी और 1992 के आम चुनाव में उसे इस्लामी सरकार बनाने का ठोस जनादेश दिया। लेकिन फ़्रान्स ने तत्कालीन राष्ट्रपति को उक्साकर इस चुनाव को निरस्त करा दिया और लोकतान्त्रिक व्यवस्था को भंग कर दिया। जिसके बाद वहां गृह युद्ध शुरू हो गया।

फ़िलिस्तीन समस्या

ब्रिटेन ने ख़लीफ़ा के शासन को खत्म करने के बाद दूसरे यूरोपीय देशों और अमरीका के साथ मिल कर दुनिया में बिखरे हुए यहूदियों को फिलिस्तीन के अन्दर लाकर बसा दिया और यू.एन.ओ. ने, जिसे “झूटों का संघ” भी कहा जाता है, 1948 में वहां इस्राईल के नाम से यहूदियों के राज्य की मान्यता दे दी। फिर इस नाजायज़ और फ़र्ज़ी देश ने वहां के लोगों को उस ज़मीन से भी निकालना शुरू कर दिया जिसे “झूटों के संघ” ने फ़िलिस्तीनी राज्य की मान्यता दी थी। झूटों का संघ यह सब देखता रहा और इस्राईल के हाथ पांव फैलते फैलते पूरे फ़िलिस्तीन पर लिपट गए।

तब से लेकर आज तक फ़िलिस्तीन की जनता इस्राईल के रहम व करम पर जी रही है, और जी क्या रही है बल्कि जीने के हक़ के लिए अपने दुशमन से लड़ते लड़ते मर रही है। झूटों का संघ इस्राईल का संरक्षक बना हुआ है और फ़िलिस्तीन व उसकी जनता को धोखे पर धोखे दिए जा रहे है। इस्राईल और झूटों का संघ यूं तो पूरी फ़िलिस्तीनी क़ौम को उसके हक़ से महरूम किए हुए है लेकिन ख़ास तौर से इन दुराचारियों का ज़ोर इस पर लगा हुआ है कि फ़िलिस्तीन के मुसलमान इस्लाम को अपनी जीवन प्रणाली न बनाएं। दुनिया की ख़बर रखने वालों से यह बात छिपी नहीं है कि लाखों फिलिस्तीनी जीने के इस संघर्ष में दुश्मन के हाथों मारे जा चुके हैं और जीने का हक़ मिलने की कोई उम्मीद अभी भी दिख नहीं रही है। इस्राईल येरूशलम में मुसलमानों के पवित्र स्थल अक़सा मस्जिद को भी ढाने के फ़िराक़ में है जो कि मुसलमानों के लिए मक्का के काबा की ही तरह ही महत्वपूर्ण है।



9/11 के बाद

जैसा कि पहले कहा जा चुकी है कि लम्बे समय से युद्धग्रस्त चले आ रहे अफ़ग़ानिस्तान में 1990 के दशक में अफ़ग़ानियों के एक परम्परावादी गुट तालिबान (मदरसों के छात्रों) ने देश पर नियन्त्रण पा कर वहां एक सरकार बना ली थी और देश की बड़ी जनता ने उसे स्वीकार कर लिया था। देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले कई दूसरे मज़हबी गुटों ने भी अपने हथ्यार रख दिए थे और इस सरकार के साथा देश का भविष्य बनाने के लिए सहयोग और संवाद कर रहे थे। तालिबान की सरकार ने शरीअत का क़ानून (अपनी परम्परावादी सोच के साथ) लागू किया था और अपराधों व ग़ैर-क़ानूनी धन्धों से देश को बड़ी हद तक मुक्त करा लिया था। यू.एन.ओ. की जांच रिपोर्ट के अनुसार तालिबान के शासन में अफ़ीम (भांग) की पैदावार शून्य हो गयी थी जो कि अफ़ग़ानिस्तान के अलावा बाक़ी दुनिया के लिए भीपहले एक बड़ी समस्या थी, क्योंकि मादक पदार्थों की तस्करी करने वाले गैंग यूरोप, अमरीका और दीगर देशों में मादक पदार्थों की सप्लाई बड़े पैमाने पर करते थे जिससे वहां के युवाओं के नशे की लत और ज़्यादा बढ़ती जा रही थी।

लेकिन इस्लाम से नफ़रत करने वाले अमरीका और उसके सहयोगियों ने तालिबान के शासन को स्वीकार नहीं किया हालांकि यह खुला तथ्य है कि तालिबान को आगे बढ़ाने का काम पहले अमरीका और उसके सहयोगियों ने ही अंजाम दिया था क्योंकि वे तालिबान के ज़रिए उन शक्तियों को पीछे धकेलना चाहते थे जो ज़्यादा सोचे समझे और लोकतान्त्रिक ढंग से इस्लामी शासन व्यवस्था बनाने की सोच रखते थे और राजनीतिक दूरदृष्टि रखते थे। तालिबान ने मौक़ा पाने के बाद अमरीका के इशारों पर चलने से इंकार कर दिया इसलिए अमरीका और उसके पिछ लग्गुओं ने तालिबान को रुढ़िवादी, कट्टर और आतंकवादी कह कर उनकी हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्रोहियों को मदद पहुंचानी शुरी कर दी। इस बीच तालिबान ने क़न्धार की पहाड़ियों पर प्राचीन काल की कुछ मूर्तिआकार चित्रों को मिटाने का फ़ैसला लिया जो हालांकि उनका आन्तरिक मामला था लेकिन यह इतना बड़ा मुद्दा बन गया कि अमरीका ने पूरी दुनिया को तालिबान के विरोध में अपने साथ खड़े होने के लिए तैयार कर लिया। दुनिया को यह समझाया गया कि अफ़ग़ानिस्तान पूरी दुनिया के ख़िलाफ़ इस्लामी जिहाद का एक केन्द्र बन गया है जिसे तबाह करना पूरी दुनिया की ज़रूरत है।

फिर इसी बीच 9 सितम्बर 2001 को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सैण्टर पर रहस्यपूर्ण हमला हुआ जिससे पूरा वर्ल्ड ट्रेड सैण्टर ध्वस्त हो गया। इसे अमरीका ने तालिबान और अमरीका विरोधी अरब नौजवान उसामा बिन लादिन का कारनामा क़रार दिया और इसके जवाब में अफ़ग़ानिस्तान में कई महीनों तक एसी भयानक बम्बारी की जिसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। पूरा अफ़ग़ानिस्तान बारूद से भर गया। तालिबान और उसामा का तो पता नहीं चला लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के लगभग 4 लाख लोग इस ख़ूंख्वारी की नज़र हो गए।(विकीपीडिया)

9/11 के रहस्यपूर्ण हमलों के बारे में आज तक यह साबित नहीं हो सका कि यह तालिबान, बिन लादेन या और किसी मुस्लिम व्यक्ति या संगठन का काम है। विश्लेषकों ने यह माना है कि इतनी बड़ी और कामयाब घटना अंजाम देना तालिबान की क्षमता और संसाधन से बिल्कुल परे है। इसके विपरीत ख़ुद अमरीका के बहुत से विशेषज्ञों, विश्लेषकों और कुछ राजनेताओं ने यह माना है कि यह कर्तूत ज़ियानिस्टों (साज़िशी योजनाएं रखने वाले यहूदी संगठन) ने अंजाम दी थी जो अमरीका में अपना जाल बिछाए हुए हैं और अमरीका को अपने हित के लिए इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने अमरीका के हाथों मुसलमानों को चोट पहुंचाने, इस्राईल की सुरक्षा के लिए चिन्ताओं को बढ़ाने और विश्वशान्ति को भंग करके अपना उल्लू सीधा करने के लिए यह साज़िश रची थी।

लेकिन इसके बावजूद अमरीका ने पूरी मुस्लिम दुनिया के खिलाफ़ एक लगातार जारी रहने वाली लड़ाई शुरू कर दी। अफ़ग़ानिस्तान के बाद उसने इराक़ को तबाह कर दिया, हालांकि इराक़ के बारे में भी उसका प्रोपेगण्डा झूठा ही साबित हुआ। लेकिन इराक़ में पांच लाख लोग इस अमरीकी हमले के नतीजे में मार दिए गए। (विकीपीडिया, सर्वे 2011) फिर धीरे धीरे पूरी मुस्लिम दुनिया में अशान्ति का एक माहौल बन गया, इस्लाम और मुसलमानों के बारे में दुष्प्रचार पूरी दुनिया में एक फ़ैशन बन गया और मुसलमानों को अलग थलग करना, उनकी आस्था का मज़ाक़ उड़ाना, उनके पैग़म्बर को अपमानित करना, उनकी सन्सकृति व सन्सकारों को बिगाड़ना और दुनिया को इस्लाम से दूर रखना अमरीका और उसके पिछ लग्गुओं की मुस्तिक़ल नीति बना हुआ है।

नतीजा

इन हालात के चलते मुस्लिम दुनिया के संवेदनशील लोग ख़ुद को एक एसी जंग में घिरा हुआ देख रहे हैं जो उन पर थोप दी गयी है और जिसमें उनके दुशमन ने उन्हें चारों तरफ़ से इस तरह घेर लिया है कि मुस्लिम देशों के शासक और राजनेता भी दुशमन के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। जंग की इस स्थिति में एसे लोगों और समूहों का उभरना कोई अस्वभाविक और अनैतिक बात नहीं जो हथ्यार उठाने को ही आख़री विकल्प समझें। इस लिए जहां जहां इस्लामवादी संगठन सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं वहां इसका बुनियादी सबब उन्हें राजनीति और चुनाव के माध्यम से सत्ता में आने से रोकने की कोशिशें करना और अमरीका व अन्य देशों द्वारा इस्लाम व मुसलमानों के खिलाफ़ व्यापक युद्ध छेड़ना हैं। अतः इसकी पूरी ज़िम्मेदारी भी अमरीका और उसके सहयोगी देशों पर है।

अवसर और सम्भावनाएँ

मुस्लिम देशों में अगर एक आज़ाद जम्हूरी निज़ाम को फलने फूलने का मोक़ा दिया जाएगा तो मुख्यधारा के इस्लामी संगठन बन्दूक़ के बल पर सत्ता नहीं हत्याएंगे बल्कि अवाम की मर्ज़ी और इन्तेख़ाब से ही सत्ता में आने की कोशिश करेंगे और राष्ट्रीय सहमति से ही देश में इस्लामी क़ानून लागू करने के ख़्वाब को पूरा करेंगे। मुसलमान चूंकि इस्लाम और शरीअत को मानने वाला ही एक समुदाय हैं इसलिए वे जिस बात को मानते हैं उसे ही व्यवहार में लाने की सीख उन्हें दी जाएगी। मुस्लिम देशों की हद तक यह उनका अन्दरूनी मामला है जिसमें अमरीका या दूसरे देशों को दख़ल देने का कोई हक़ भी नहीं है।

मुस्लिम देशों में अगर शरीअत लागू होगी तो यह केवल वहां के मुसलमानों के लिए ही मुफ़ीद नहीं होगा बल्कि दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों के बुनियादी अधिकारों और सम्मान, सुरक्षा एंव विकास के लिए भी बहतर होगा। शरीअत का क़ानून अल्लाह और पैग़म्बर का बनाया हुआ क़ानून है। अल्लाह तमाम लोगों का पालनहार एंव स्वामी है और उसके पैग़म्बर तमाम जगत के तमाम प्राणियों के लिए रहमत वाले और कृपाशील हैं। इसलिए अल्लाह और पैग़म्बर के क़ानून के बारे में यह सोचना बड़ी नादानी की बात है कि उसमें मुसलमानों के अलावा बाक़ी लोगों के लिए स्वतन्त्रता और सम्मान के साथ जीने की कोई गुंजाइश नहीं होगी।

शरीअत के क़ानून में ग़ैर-मुस्लिम नागरिकों के अधिकारों की पूरी जमानत मौजूद है। पैग़म्बर साहब ने अपने ज़माने के, पहले इस्लामी राज्य में ग़ैर-मुस्लिम समुदाय के आम लोगों के साथ जिस दयाशीलता, सहिष्णुता और सद्व्यवहार की मिसालें छोड़ी हैं उनके आधार पर शरीअत का क़ानून ग़ैर-मुस्लिम नागरिकों के साथ मामला करता है। इसमें सबसे पहली चीज़ अक़ीदे (आस्था या धर्म) की आज़ादी है। पैग़म्बर साहब ने कभी भी अक़ीदा और आस्था बदलने के लिए किसी पर दबाव नहीं बनाया। आप के पास आने जाने वाले, आप के आस पास रहने वाले और आपके साथ लेन देन के मामले करने वाले बहुत से लोग एसे थे जो आप को पैग़म्बर नहीं मानते थे, अपनी पिछली आस्थाओं पर जमे हुए थे, लेकिन आपने उनके साथ न तो सम्बन्ध तोड़े, न उनका सामाजिक या आर्थिक बहिष्कार किया न उनसे व्यापार या लेन-देन करने से मुसलमानों को रोका। हां, इस्लामी समाज और राज्य को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश करने वालों, साज़िशों करने वालों और खुले या छिपे जंग करने वालों से आप मुक़ाबला करते थे, और उन पर नियन्त्रण पाने के लिए जितना आवश्यक होता था उतना ही बल आप प्रयोग करते थे।

शरीअत के क़ानून में गैर मुस्लिमों के नागरिक अधिकार मुसलमानों के नागरिक अधिकारों के बराबर हैं उनसे कम नहीं है। ग़ैर-मुस्लिम नागरिकों के जीवन की आवश्यकताएं पूरी करना शरीअत का क़ानून लागू करने वाली सरकार के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना मुस्लिम नागरिकों की आवश्यकताओं को पूरा करना।

शरीअत के क़ानून के अनुसार राज्य का हर नागरिक सरकार की संरक्षा में होता है। पैदा होने से लेकर मौत तक की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही सरकार और हाकिम की है। हर एक को रोज़गार, शिक्षा और जीवन की बहतर से बहतर सहूलत देने में सरकार मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम में भेद- भाव नहीं कर सकती। किसी भी अपराध के सम्बन्ध में क़ानून एक ही तरह से लागू होता है चाहे वह अपराधी या पीड़ित मुसलमान हो या ग़ैर-मुस्लिम। किसी भी निर्दोष की हत्या के मामले में, (जिसका कारण कोई धार्मिक भावना न हो), चाहे वह मुसलमान नागरिक की हो, या ग़ैर मुस्लिम नागरिक की, मुसलमान के हाथों हुई हो या ग़ैर-मुस्लिम के हाथों हुई हो, हत्या करने वाले की सज़ा शरीअत में एक ही है, इसमें कोई भेदभाव नहीं है।

इसी तरह महिलाओं, बच्चों, बुज़ुर्गों या समाज के किसी भी कमज़ोर वर्ग के लिए शरीअत का क़ानून राज्य और सरकार पर उससे कहीं ज़्यादा ज़िम्मेदारी डालता है जितनी ज़िम्मेदारी यू.एन.ओ. के चार्टरों में हुकूमतों पर डाली गयी है। विवेचना करने से यह बात साफ़ तौर पर समझी जा सकती है कि बराबरी और न्याय पर आधारित एक विश्व समाज बनाने के प्रयासों के तहत जितने विचार अभी तक दुनिया में लागू किए गए है या किए जा रहे हैं, वे शरीअत में दिए गए दिशा निर्देशों से बहूत पीछे हैं उनसे आगे कहीं भी नहीं हैं। ज़्यादातर मामलों में तो शरीअत के क़ानूनों की ही नक़ल की जा रही है।

इसलिए ग़ैर-मुस्लिम दुनिया को शरीअत का क़ानून लागू होने से न तो डरना चाहिए न इसका विरोध करना चाहिए। जो लोग शरीअत के क़ानूनों में कोई कमी या भेदभाव देखते हैं उन्हें स्कॉलरों से तार्किक बहस करके सही नतीजे पर पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए। शरीअत का क़ानून किसी भी व्यक्ति, समूह अथवा राष्ट्र के हाथों महिलाओ, बच्चों, कमज़ोर वर्गो या दूसरे वयक्तियों, समूहो, राष्ट्रों का शोषण करने की अनुमित नहीं देता। शरीअत के क़ानून का विरोध करने के पीछे वास्तव में शोषणकारियों, दमनकारियों, संसाधनों को लूटने वालों, महिलाओं और बच्चों का यौन उत्पीड़न करने वालों की वासनाएं या साम्प्रदायिक अहंकार व घृणाएं हैं, कोई मानवीय भावना नहीं है।

इस्लाम की मंशा

इस्लाम जीवन के लिए अल्लाह के दिशा निर्देशों का नाम है। यह दिशा निर्देश क़ुर्आन और मुहम्मद साहब की शिक्षाओं से मिलते हैं। इन दिशा निर्देशों पर एक एसा समाज बनता है जिसमें तमाम इंसानों को अल्लाह का बन्दा और एक माता-पिता की सन्तान माना जाता है। जिसमें रंग, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव की कोई कल्पना नहीं है। अलबत्ता, लोगों को दो तरह से पहचाना जाता है। एक वे लोग जो अल्लाह को पूजनीय और पैग़म्बर को अनुकरणणीय मानकर ईमान वाले (मुसलमान) बन गए हों और दूसरे वे लोग जो इस्लाम के अलावा अन्य धर्मों को अनुयायी (ग़ैर-मुस्लिम) हों। आम नागरिक क़ानून सबके लिए बराबर और एक हैं लेकिन धर्म या आस्था सम्बन्धी विशेष क़ानून मुसलमानों पर शऱीअत के अनुसार लागू होते हैं और ग़ैर-मुस्लिमों पर उनकी अपनी मान्य़ताओं के अनुसार। (उस हद तक जहां तक किसी व्यक्ति के जीवन, सम्मान और मौलिक मानवीय अधिकारों का हनन न हो, जैसे सती के क़ानून को नहीं माना जाएगा, किसी इंसान की बलि नहीं दी जा सकेगी वग़ैरह)।

शऱीअत में मर्द और औरत दोनों को अपनी सम्पत्ति रखने, कारोबार या जॉब करने, अपनी महनत का बराबर से मुआवज़ा पाने, अपना धन अपनी इच्छा से ख़र्च करने का अधिकार है। शरीअत औरतों को किसी भी जायज़ और उचित तरीक़े से धन कमाने से नहीं रोकती और उनके धन पर उनका अपना अधिकार मानती है लेकिन इसके बावजूद औरत का ख़र्च उठाने की ज़िम्मेदारी मर्द पर डालती है चाहे वह उसका पिता हो, भाई हो, पति हो या दूसरा क़रीबी रिश्तेदार हो। किसी महिला का ख़र्च उठाने वाला कोई रिश्तेदार न होने की स्थिति में औरत के ख़र्च की ज़िम्मेदार सीधे सरकार पर होती है और उसे महिला को पेन्शन देना होती है।

समाज के सभी कमज़ोर और असहाय लोगों जैसे, अनाथ, बूढ़े, अपंग या और किसी वजह से अक्षम लोगों को सम्मानजनक रूप से जीने और एक औसत आदमी के बराबर स्तर का जीवन देने की ज़िम्मेदारी भी सरकार पर होती है।

इस्लाम और इस्लामी शरीअत हर व्य्क्त को व्यक्तिगत सम्पत्ति रखने और अपनी क्षमताओं व प्रतिभाओं से अपने बस भर धन कमाने व सम्पत्ति बढ़ाने का अधिकार देती है लेकिन सरकार सार्वजनिक संसाधनों का लाभ हर व्यक्ति को पहुंचाने की पाबन्द है और इस पाबन्दी की वजह से वह कुछ विशेष लोगों या विशेष वर्गों को सार्वजनिक सम्पत्तियों का बिना शर्त दोहन करने की अनुमति नहीं देती। किसी भी व्यापार या उद्योग की तरक़्क़ी में किसी व्यक्ति या कम्पनी के स्वंय अपने संसाधनों के अलावा जितने भी रूप से सरकार अथवा सार्वजनिक संसाधनों का योगदान होता है उस पूरे हिसाब से व्यापार या उत्पादन के फ़ायदे में कुल जनता बराबर से शरीक होती है। इसलिए शरीअत के क़ानून वाली सरकार जनता के हितों की क़ीमत पर किसी भी व्यक्ति या कम्पनी को निजी लाभ कमाने की अनुमति नहीं देती।

शरीअत हर मालदार व्यक्ति पर कम से कम एक शरई टैक्स (ज़कात) ज़ूरूर लागू करती है जो कुल समपत्ति का 2.5 प्रतिशत वार्षिक के हिसाब से वसूला जाता है। शरीअत के क़ानून वाली सरकार मुसलमानों से इस टैक्स को ज़कात के नाम से वसूल करेगी और ग़ैर-मुस्लिम मालदार नागरिकों से नागरिक टैक्स के रूप में वसूल करेगी। इसके अलावा आम जनता के प्रतिनिधियों की मन्ज़ूरी से जो भी टैक्स ज़रूरी होंगे वे मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम नागरिकों से बराबर से वसूले जाएंगे।

शरीअत की मंशा एक बहतरीन समाज बनाना है जिसमें व्याभिचार और ग़लत धन्धों की कोई अनुमति नहीं होगी। शरीअत के क़ानून वाली सरकार में पब नहीं चलेंगे, वेश्यावृत्ति नहीं होगी, सैक्स व्यापार नहीं होगा, मर्दों या महिलाओं को मनचाहे तरीक़े से सैक्स करने की खुली छूट नहीं होगी। विवाह केवल मर्दों और औरतों के बीच ही मान्य होगा।

शरीअत के क़ानून वाली सरकार में सेनिमा को नैतिकता को बढ़ाने वाले मनोरंजन परोसने की अनुमति होगी, अनैतिक फ़िल्में बनाने की अनुमति नहीं होगी।

शरीअत के क़ानून वाली सरकार में महिलाओं को बहुत अधिक सम्मान दिया जाएगा, उनके सम्मान की पूरी सुरक्षा की जाएगी, उनका यौन उत्पीड़न करने वालों को कड़े से कड़े दण्ड दिए जाएंगे। महिलाओं को बुर्क़ा पहनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा, लेकिन उनसे शालीन लिबास पहनने की अपेक्षा की जाएगी। मुस्लिम महिलाओं को शरीअत के अनुसार कपड़े पहनने और हिजाब करने का पाबन्द किया जाएगा, लेकिन ग़ैर-मुस्लिम महिलाओं को इसके लिए क़तई मजबूर नहीं किया जाएगा। उन्हें अपनी पसन्द के कपड़े पहनने, अपने बाल और चहरा, बाज़ू वग़ैर खुले रखने की इजाज़त होगी लेकिन नग्न अथवा अर्धनग्न कपड़ों में बाहर निकलने की अनुमित नहीं होगी। यह इसलिए होगा कि महिलाओं का सम्मान बढ़े और उनकी तरफ़ बुरी निगाहों से देखने वालों का उत्साह वर्धन न हो।

शरीअत का क़ानून लागू करने वाली सरका व्याज़ मुक्त आर्थिक और बैंकिंग व्यवस्था को विक्सित करेगी। ब्याज लेना और देना अपराध होगा और इसकी कड़ी सज़ा दी जाएगी क्योंकि ब्याज लोगों का आर्थिक शोषण का सबसे बड़ा माध्य है।

मुस्लिम देशों में इस तरह का शरई क़ानून लागू करना ख़ुद वहां के मुसलमानों की अपनी ज़िम्मेदारी और इच्छा पर ही निर्भर है। एक खुली साफ़ सुथरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इस्लामी संगठन जनता का मत और विश्वास प्राप्त करके राष्ट्रीय सहमति से यह क़ानून लागू करेंगे।

लेकिन ग़ैर-मुस्लिम देशों में इस्लामी शरीअत लागू करना किसी भी मुस्लिम देश या इस्लामी सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है। इसलिए अपने यहां इस्लामी शरीअत लागू करने वाले किसी भी मुस्लिम देश से किसी ग़ैर-मुस्लिम देश को एसी आशंका नहीं रखनी चाहिए।

आज चूंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हर व्यक्ति अपनी मर्ज़ी से इस्लाम को अपनाने की आजादी रखता है और देश का क़ानून या व्यवस्था उसे इससे नहीं रोकती। दूसरे यह कि वैचारिक आदान प्रदान और खुली चर्चा के साथ नतीजों को निकालने का मौक़ा प्राप्त है इसलिए इस्लाम को फैलाने और शरीअत के क़ानून के अनुसार लोगों के जीवन को संयमित करने की ज़िम्मेदारी महसूस करने वाले किसी भी मुस्लिम देश पर वहां फ़ौज भेजने की ज़िम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह इस्लाम के प्रचार और इस्लामी शरीअत को समझाने तथा ग़ैर-इस्लामी जीवन यापन के नुक़सान बताने के लिए लिट्रेचर, गोष्ठियों, वर्तालाप और तार्किक परिचर्चाओं से ही काम लेगी।

अभिव्यक्ति की आज़ादी, आस्था की आज़ादी और लोकमत बनाने के लिए प्रचार व संचार करने की आज़ादी में यक़ीन रखने वाली आज की लिब्रल दुनिया को इस्लाम के साथ एक खुली बहस करनी चाहिए, इसका रास्ता रोकने के लिए इसके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार या सैनिक कार्वाइयां करने से बचना चाहिए। हर तरह के आतंकवाद को रोकने और दुनिया में शान्तिमय माहौल बनाने का यही रास्ता है और इसकी ज़िम्मेदारी अमरीका, यूरोप और उनके समर्थक देशों पर ही है कि वे अपनी नीतियां दुरूस्त करें और इस्लाम के चैलैन्ज को एक वैचारिक चुनौती के रूप में स्वीकार करके आत्मंथन करें।